शनिवार, 30 अप्रैल 2011

बाट

दूर कहीं टिमटीमाये लौ 
पथिक अकेला देख कर 
उकसाए ललचाये चटकती
पावों छिलते बेखबर मटकती 
चल चला चल तू पाने को
मंजील बन बाट जोहे जो    

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

रच कर खेला

जो आया था वो चला गया 
यह  कहते लोगों को सुना 
जो आया है वो जाये कहाँ
जो चला गया वो था कहाँ 
रचने वाला रच कर खेला 
बना कर जोड़ा था ये मेला 
मेले का जो चला यह रेला
समझो जुड़ेगा अब नया
खेल खेलता खेलने वाला 
जोड़ तोड़ से जीवन बुनता 
टूटता जुड़ता इस माटी से    
घटा जमा का गणित गुना  

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

तेरे रूप मे आई माँ

प्रभु जी हम पर ये उपकार जो तेरे रूप मे आई माँ
प्रभु जी हम हैं कर्जदार जो हमको जन्म देती माँ  

हमारे दुःख सदा हरती हमे है सुख से यूँ भरती
हमे कभी दुःख ना छु पाते जो सर पे हाथ रखे माँ
प्रभु जी हम पर ये उपकार जो तेरे रूप मे आई माँ ............
हमारे खून की हर बूँद हमारी कर्जे में हर सांस
प्रभु हम माँ के कर्जे में चुकाएं कैसे कहिये आप
प्रभु जी हम पर ये उपकार जो तेरे रूप मे आई माँ ...........
प्रभु हम कुछ ना अब चाहेंसदा ही तुमको हम ध्याएँ
तेरे भी कर्जे में आयें, जो तुने दी है माँ की छाँव
प्रभु जी हम पर ये उपकार जो तेरे रूप मे आई माँ ............
माँ की सेवा खूब करनामाँ को दुःख नहीं देना
माँ को ना होकोई कष्ट, कष्ट देनाहमे देना
प्रभु जी हम पर ये उपकार जो तेरे रूप मे आई माँ .............
हमारी माँ के जैसी माँ, तुने देखि और कहाँ
जो तू भी चाहता था ममता, तो पैदा होता तू यहाँ
प्रभु जी हम पर ये उपकार जो तेरे रूप मे आई माँ ............
प्रभु जी भूल क्या हो गईजो तुने माँ को है छिना
पकड़ के कान रगड़े नाक, राजीव को ये ही माँ देना
प्रभु जी हम पर ये उपकार जो तेरे रूप मे आई माँ...............
 

रविवार, 24 अप्रैल 2011

कान्हा अब क्यूँ ना आये

हो मैया मोरी कान्हा अब क्यूँ ना आये
ओरी माँ मेरी कान्हा अब क्यूँ ना आये

ग्वाल बनू और बाल संग खेलूं
तू बिलोये मै माखन लेलूं
मेरा भी जी चाहे 

हो मैया मोरी कान्हा अब क्यूँ ना आये
ओरी माँ मेरी कान्हा अब क्यूँ ना आये

जमुना जांऊ गोते लगाऊं
मटकी फोडूं और छुप जांऊ
तू आवे धमकावे

हो मैया मोरी कान्हा अब क्यूँ ना आये
ओरी माँ मेरी कान्हा अब क्यूँ ना आये

कदम्ब चढ़ जाएँ गोपियाँ नहायें
वस्त्र चुराए कान्हा और वो लज्जायें
कान्हा की लीलायें 
हम भी देखनो चाहें

हो मैया मोरी कान्हा अब क्यूँ ना आये
ओरी माँ मेरी कान्हा अब क्यूँ ना आये

काहे जन्मा पथरान मैं मै
माटी मथुरा ना चख पायो
ब्रज मोहे कह कह चिढावे 

हो मैया मोरी कान्हा अब क्यूँ ना आये
ओरी माँ मेरी कान्हा अब क्यूँ ना आये

कान्हा सखा का रूप मै पातो
सुदामा के संग मै भी रिझातो
और कछु ना मै चाहतो

हो मैया मोरी कान्हा अब क्यूँ ना आये
ओरी माँ मेरी कान्हा अब क्यूँ ना आये

कान्हा सुनता है सबकी सुनो
जो कछु चाहो वासे मांग लीनो
राजीव कही कही गावे

हो मैया मोरी कान्हा अब क्यूँ ना आये
ओरी माँ मेरी कान्हा अब क्यूँ ना आये

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

अभिनेत्री हूँ

तालिओं की गडगडाहट
लोगो की वाहवाही
बिजली की चकाचोंध
चमक के बीच
मंच पर खड़ी
मै, एक अभिनेत्री
मेरा घर है ये मंच
ये दुनिया परिवार
लेकिन
मंच की दुनिया से बाहर
मै एक तमाशा
मेरा बिखरा हुआ परिवार
मुझसे दूर बहुत दूर
केवल कुछ नज़रें
ललचाई सी
ताकती हुई मेरा शरीर
आ रही हैं करीब
ये समाज जो कल तक मेरे साथ था
आज क्यूँ नहीं देख रहा
मेरी किस्मत बदनसीब


मै अकेली विवश बेसहारा
ढूँढती हुई किनारा
आ पहुंची समाज में
परन्तु, ये घबरा रहा है
डर रहा है, 

मुझे अपनाने में
क्यूँ
 

क्या इसलिये
क्यूँ मैंने समाज के
सामने
समाज का चेहरा प्रस्तुत किया
और सचाई कडवी होती है
या इसलिये की मै
ऐसे समाज में आ गई हूँ
जिसे दरिंदो का समाज कहा जाता है
या वो फूल हूँ जिसे सिर्फ पैरों तले रौंदा जाता है

मेरी भी
इच्छाएं है तमन्नाएँ है
किसी की बीवी बनू
माँ बनू किसी की
क्या तुम्हारी
इच्छाएं, इच्छाएं हैं मेरी इच्छा कुछ नहीं
क्या मेरी दुनिया मंच की दुनिया, ये समाज कुछ नहीं

जब मेरे सर से उठा साया
मेरे बाप का
तब सब थे कहाँ
ये समाज ही तो है
जिसने मुझे पहूंचाया यहाँ
मै बनी सहारा अपनी माँ और बहिनों का
पर इस समाज ने
पहनाया ताज मुझे अपमान के गहनों का
वाह रे समाज, क्या ढंग बनाया
भाई ने ही, बहिन के नाम पर
धब्बा लगाया
कीचड़ से बचाना तो दूर
बल्कि दलदल मैं फंसाया
आज मुझे मेरा सहारा मिल रहा है
मगर समाज भटका रहा है उसकी भी डगर
तुम कुछ दे नहीं सकते, तो छीनो  तो मत
न जाने कब दूर होगी तुम्हारी हवस की ये लत
 

इससे तो मंच की दुनिया अच्छी है
जहाँ सच्चा कुछ नहीं
बहार आकर देखा
तो समाज से बुरा कुछ नहीं

मुझे गर्व है
मै एक स्त्री हूँ
जो समाज में नहीं
परन्तु मंच की अभिनेत्री हूँ
अपने आप को ढालूंगी
उस सांचे में
जो समाज का जवाब होगा
एक तमाचे में
हाँ

मै एक अभिनेत्री हूँ

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

वृक्ष

ओ महान वृक्ष तुम
बता रहे खड़े खड़े
निःस्वार्थ स्वार्थी की
सेवा में रहे पड़े

बिन जल के पल रहे
धुप में यूँ जल रहे
हर कठिन समय सहा
तुम सदा अटल रहे

चाहत के शब्द से
दूरियां सदा रही
घाव हर पाषाण के
बिन रुदन सब सही

गुरु कोई न दिखा
जो गया तुम्हे सीखा 
जीवन को जीने में
तुम ही तुम गुरु दिखे

मूक तुम बने रहे
जहाँ गड़े खड़े रहे
भिन्न भिन्न भांति भांति
पेट तुम भरे रहे

भेद कोई ना किया
जिसने माँगा सो दिया
कैसे मेरे देव तुमने
एकांकी ही सब जिया

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

कटु सत्य

सुबह हुई सब उठ गए थे
मै अलसाया गुथ रहा था

क्यूँ हुई यह छद्म सुबह
बहकाती है बेवजह
ढले तलक ये दोडाएगी
अंत में फिर घर लाएगी

आना है तो जाना क्यूँ
बेकर्म कर्म पछताना क्यूँ
सुबह का आना पल भर है
उसकी बाट जोहना क्यूँ


सांझ की बस चाह हमें है
शीतलता की राह हमे है
जो देगी तीन पहर विश्राम
निश्चिन्तता को वो आराम
फिर काहे हम भूले साँझ
दिन का मैल बिना हम मांझ
सत्यता जब समक्ष खड़ी है
लुप्त गुप्त ये दिवस घडी है

आओ साँझ के घर को जाएँ
रिश्तों को हम और बढाएँ
आराम, अंत, विश्राम, अनंत,
पड़ाव, ध्यान, हैं साँझ के भाई
निद्रा, मूर्छा, निर्विघन चेतना
अंतिम वेदना सी बहने पाई
इनसे नाता है हमें जोड़ना
दिवस ढले पड़े सब छोड़ना

मत कर जीवन अस्त व्यस्त
सांझ का आना है कटु सत्य

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

सफर

आन्तरिक समस्याओं में जकड़ा
खड़ा हुआ एक चौराहे पर
सड़क पार करने की सोच रहा था
देखा एक लम्बी सी गाड़ी के पास
एक मैले कुचैले वस्त्रों में लिपटी
अपने दुधमुहे के मुख में स्तन
अपने अर्ध नग्न तन को लपेटती
एक नारी गरीबी का वास्ता दे रही थी
और कुछ मिलने कि चाह में
अंगो की कराहट दिखा रही थी
तभी गाड़ी का कांच नीचे
और उसमे से हाथ से कुछ इशारा हुआ
मुझे कुछ समझ न आया
पर इतनी देर में उस स्त्री को  मैंने
लाल बत्ती पार पाया
मैंने उत्सुकता वश
उस और कदम बढाया
और पाया
एक आदमी लगता था उस गाड़ी से उतरा
अपने चित्र खिंचक यंत्र में
उस अर्ध नग्न तन नारी को
कैद कर रहा था
और उसके झांकते अंगो से
सामीप्य बना रहा था
और दुधमुहा अपनी भूख कि खातिर
उस पुरुष कि भूख को बढ़ा रहा था
तभी सब तितर बितर हो गया
गाड़ी अपने सफ़र
नारी अपने सफ़र
और मै हकीकत पर चल पड़ा
पर मस्तिष्क में कैमरा गाड़ी और नारी
जम चुके थे
और मेरे कदम चौराहे से दूर थे
पर चौराहे पर
थम चुके थे


एक दिन मै कला प्रदर्शनी देखने
ज्यूँ ही कला गृह पहुंचा
ठिठक गया
और सारा ध्यान मेरा दिवार पर टंगे
चित्रों पर गया
हर चित्र में वही नारी वही साड़ी
वही अर्ध नग्न तन, वही दुधमुहे की लाचारी
झांक रही थी
और हर चित्र में लगी बिंदी
नारी चित्रों का मूल्यांकन आंक रही थी
हर चित्र का मूल्य लाख से कम न था
और उस गरीब नारी को खाने को अन्न न था
वह री खायी, गरीब ने अमीर और अमीर बनाया
और अमीर उस गरीब को दो वक्त का अन्न भी न दे पाया

ओ मेरे समाज सुधारकों समाज से पहले उन्हें सुधारों
जो पाते गरीब से खाते गरीब से
और देने की बात आते ही अपने
नाक मुह सिकोड़ करते नफरत गरीब से
आओ उन्हें बतलाओ अमीर तब तक अमीर है
जब तक इस जमीं पर दूसरी और गरीब है
अगर गरीब मर गया तो अमीर न बच पायेगा
एक अमीर दुसरे अमीर को अमीर नहीं कह पायेगा 

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

अँधेरा

पौ फटे संजोये
बीती थकन,
धधकती अग्न  
फटकार, दुत्कार 
तिरस्कार 
मानसिक शारीरिक 
मार और मार

अँधेरा लिए राह  में
देने पुन: संजोये
प्यार, दुलार 
हिलोरे खेल 
बिन, जीत हार 
कोख का पुरस्कार 
चूमती ह्रदय की चट्खार  

रविवार, 17 अप्रैल 2011

प्रिय

सावन सुखा  झुलस गया 
पतझड़ आया ठूंठ बनाया  
जेष्ठ में भीग भागी गर्मी 
पोह भाता था गुजर गया 

ऑंखें सावन पतझड़ होठ 
पोह से अंग  जेष्ठ आगोश 
बसंती उम्मीद जग खामोश 
आत्मा तरसी बदली छायी

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

भौर

पौ फटते ही
स्वप्नों के संसार ने
समेट ली चादर

सितारों जड़ी रात
प्रतिबिम्बित होती
जल के पटल पर
थरथराते बिम्ब

बहती समीर ने
झंकझोर कर अंतर्मन
धुप भरी गागर से
बिखेरे ज्यूँ टुकड़े
रात की यादों ने
फेर लिए मुखड़े  

अंगना बुहार दूँ

प्रिय तुम आओ तो, अंगना बुहार दूँ 
पथ की चुभन को, होठों से संहार दूँ 
थकन बरसों बरस सी चिपक गई 
आओ तो उस सौतन को उतार दूँ 

तुम संग बीती, दो घड़ी थी मेरे साथ 
पवन संग खुशबु बनी, कुमकुम माथ
पथरीले पथ पथराई, फैली थी आँखें 
नम हो बह निकली, दिखो निहार लूँ 

सुहागन तू कैसी, ताने बने विश्वास 
लौटेगा अंगना सावन, भीगी थी आस
गेसू खुले पागल धारा, तोड़े थी किनारे
तनिक द्वारे  तो ठहरो, नजर उतार दूँ     

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

काव्य पाठ करने वाले

हम अपने ह्रदय की कहैं किसे
यहाँ कौन है जो हमको बांचे
सब रसिक यहाँ सुनने वाले
है कोई यहाँ जो हममे झांके
हम काव्य पाठ करने वाले
भीतर तूफ़ान भी रखते हैं
कोई कभी ज़रा छुए हमको
हम अपनी आँख भी भरते हैं

हम दर्द संजोते भीतर ही
तुम सुन हमे दर्द मिटाते हो
हम अपने घाव कुरेदते हैं
तुम उनसे औषधि पाते हो

अपने अन्दर की पीड़ा को
हम शब्दों से तुम्हे बतातें हैं
जो हमने सहा वो लिखते हैं
तुम सुन कर बस मुस्काते हो

हम भांति भांति के वृक्ष सभी
तुम चुन चुन हमे बुलाते हो
कोई फूल है या हो फल कोई
तुम हममे भी भेद कराते हो

तुम्हारी चाहत के हर रस का
हम तुम्हे रसपान कराते हैं
गन्ने सी पाकर अपनी गत
हम तुम्हे हर रस दे पाते हैं

एक चाहत है गर तुम जो सुनो
कोई मर्म ना तुम किसीको देना
जो लगे तुम्हे कोई पीड़ा-ग्रस्त
गा कर  कुछ छंद सुना देना

राजीव जाने के बाद हम
पाँचों में विलय हो जायेंगे
पर काव्य पाठ करने वाले
मरने के बाद ही जी पाएंगे

रीते पेट

आज नही था कल जैसा 
कल न जाने क्या होगा 
मौसम संग सम्पूर्ण आस
जो बिता गया कल न होगा

करवट बदलते पेट रीते 
चाँद तारे संग में जीते 
फूस कहीं सिर का न खोये 
विश्वास तुमेह भरना होगा

मौसम तेरी दहाड़ आजसी 
रीते बर्तन बजा गयी   
बेधुन रीते, जग हंसाई
धुन बर्तन भरना होगा

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

शिक्षा

सुबह सवेरे जल्दी उठकर
बच्चो संग बच्चा बन जाता
वो कांधे पानी को टांगे
और मै कांधे पर बस्ता लाता
वो शिक्षा पाने को जाते
मै खुद को शिक्षित था पाता
शिक्षा का महत्व बताने
सामाजिक दायित्व निभाता
जब भी कहीं अवसर मिलता
मै अपनी चालीसा स्वयं गाता
चंद चाहने वाले उकसाते
क्यूँ न मै मंत्रालय जाता
वहां स्थापित अस्थाई लोगों को
अपने से परिचय करवाता
आशा पाऊं समाजसुधारक
जैसा एक परिचय मै उनसे 
जूते प्रतिदिन घिसने का
अपना ये नियम भी निभाता
आज गया तो बाबु बोला
बधाई साहिब मारा मैदान
तमगा मिलेगा हुआ ये पक्का
आपका पारित हुआ है नाम
मै भूल के अपनी दिनचर्या
बात मे बैठा छोड़ सब काम
आज बड़ा शुभ दिन ये आया
हर जिव्या पर अपना नाम पाया
समाज को देने निस्वार्थ शिक्षा
हम सम्मानित हो रहे थे
स्वयं को सबसे अच्छा बतलाकर
अपने आप को खो रहे थे
करने को अपना विज्ञापन
एक शाम हमने तय किया
चंद हाँ मे हाँ कहने वाले को
खाने पिने पर एकत्र किया
अपनी बड़ाई न छोड़ी कोई
बड़ बड़ाई हम सम न कोई   
नन्हा जब पानी संग बर्फ लाया
हमने पढाई का महत्व समझाया
रात क्या हुआ था
क्या किसे कहा था
ये तो याद न था
पर नन्हा काम छोड़ चूका था
पत्नी ताना कस रही थी
अपनी तपस से बर्तन घस रही थी
समय न थमा न उम्र थमी
सरकारी कुर्सी न थमी 
आज बिदाई दफ्तर से
नए अफसर को आना था
आँखे कमज़ोर
पर चेहरा लगा पुराना था
ज्यूँ ही वो झुका
आँखे फिर धोखा दे छलक गई
वो बोला बाबूजी नन्हे को शिक्षा आपकी थी
जो लग गई और आज आपके समक्ष झुक कर
नन्हे की शिक्षा पूरी हुई
आँखे सुखी दिल रोता था
वो बात तो अपनी बड़ाई थी
असली शिक्षा नन्हे ने नहीं
नन्हे से मैंने पाई थी

तो

बांस यदि बांस तो सर फूटें 
बंसी के छेद, तभी स्वर फूटें 
रिश्तों में भेद हो तो घर टूटें 
धर्म यदि खेल बने जग टूटे 
प्रेम बने व्यापर तो रब रूठे
माट्टी उपजाऊ, अंकुर  फूटे
धरती को छेदों,  जल फूटे

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

चाहता हूँ

मौत के वातावरण में 
ठिठकते हर चरण में 
धर्म ग्रंथो की शरण में
सुनना सुनाना चाहता हूँ 
गुनगुनाना चाहता हूँ 

पीठ में कुछ घाव लिए 
सियासतों के दाव लिए 
मन में मसलते चाव लिए 
उड़ना उड़ाना चाहता हूँ 
गुनगुनाना चाहता हूँ 

शीशे में खुद को निहारता 
भीतरी गंद भीतर बुहारता 
बंद आवाज़ में सब पुकारता 
बसना बसाना चाहता हूँ 
गुनगुनाना चाहता हूँ 

मिर्च संग नीबू टांगकर  
काले तिलक भौंवे तानकर 
आग घर में लगा जानकर 
बचना बचाना चाहता हूँ
गुनगुनाना चाहता हूँ  

मेरी दूजी हो

तुमने बुझा है जो, लो आज मै कहता हूँ 
वो सहा न जाता था, जो आज सहता हूँ 

वो मेरा था प्रथम प्रेम, 
जिसने झुलसना सिखलाया 
भूल गया कुछ याद नही 
पर तुम मेरी दूजी हो 

कदम थे दहलीज पर रखे 
तभी जो आया झोंका था 
सम्भल सम्भल सुध आई 
तुम वो समझी बुझी हो 
हाँ तुम मेरी दूजी हो 

प्रथम में जो कडवाहट थी 
सामाजिक घबराहट थी 
उस चक्रविहऊ से निकले
तो जो शांति खोजी हो 
वो तुम मेरी दूजी हो 

पुराने पन्ने खोल तुमने 
इति के तार क्यूँ छेड़े हैं 
विश्वास में घात समझ 
रहती तुम सूजी सूजी हो 
हाँ सुजो तुम दूजी हो   

शंका मन से निकालो  न ही मन में दुखी हो 
प्रथम प्रणय मेरा तुम, तुम ही मेरी दूजी हो  

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

धर्म ढूंढता

चर्च के बाहर पड़ा पालना
उसमे नवजात को डालना 
माँ है बाप है ये तो तय है
इसमें बदनामी का भय है
ये कर्म किस धर्म में आता है

अजान याद, तो है मुसल्लम 
जनेऊ धरे, तो वो पंडित सम,
वाहे गुरु, तो शबदों में पारंगत
बाइबल की सीख का ज्ञाता है
स्वयं से जूझता फिरूं मै पूछता 
ये कर्म किस धर्म में आता है


मस्जिद में वो अजान को तरसे 
मन्दिर में खड़ा प्रसाद को तरसे 
ग्रन्थि संग पर अरदास को तरसे 
जीजस की जला कर मोमबत्ती वो 
तरसे पूछता, जीवन जीने की चाह
ये कर्म किस धर्म में आता है


हे सूरज तुम कैसे अपना धर्म 
इन धर्मों संग चल निभाते हो 
जल चलते रहते हरपल कलकल
नैया धर्मो की अलग चलाते हो
प्रकृति का धर्मों से घर नाता है
ये कर्म किस धर्म में आता है

मन्दिर, मस्जिद, चर्च, गुरूद्वारे
बनाये जिसने, गया हमें दे सारे
पीर  पुजारी, पादरी, ग्रंथि हमारे 
उसकी शक्ति तो सभी बतला रहे 
पाँच हैं छठी ना कोई बताता है
ये कर्म किस धर्म में आता है

पर करूं क्या, मै  यूँ खड़ा खड़ा
धर्म अपना ढूंढता, था पालने पड़ा
सर्व धर्म अपने लहू संग है दौड़ते
पूछता धर्म, क्यूँ मुख सभी मोड़ते 
किसने बनाए, बांटे धार्मिक धर्म    
ये कर्म धर्म, न कोई बताता है

दीवाना

कैसे तबाह करके, मुझे तुम चले गए 
एक झलक दिखा कर दीवाना कर गए

आज़ाद था घूमता दिल की लगी से दूर
दिल से दिल मिला कर दिवाला कर गए 

हमको था गरूर अपने दौलत ए दिल का 
लुट गये एक पल में,  सब कुछ लुटा गए

पर्दे में छुपा था यूँ, खुदा का तराशा नूर
झोंके से हवा के, हम खुद ही बिखर गए

बस्ती अपनी गुम थी, तन्हा पड़े थे हम
कदमो की आहट थी, तूफान गुजर गए

नजूमी ने कहा था, उम्र है बरसों बरस
रूह भटकती है यूँही, जीते जी मर गए 

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

ख़ुशी आई

गरीब के घर आज ख़ुशी आई 
बेटी के रूप में किलकारी पाई
तेरा कर्म सब पर बराबर होता 
पर मेरे नसीब में गरीबी आई 

चाहता हूँ न ये यौवन तक जाये 
सुन्दरता न सम्मुख कभी आये 
स्वप्नों की दुनिया में बस ये देखे 
भूख समर्पण पसीने में नहायी 

गरीब के घर आज ख़ुशी आई 

नही फटा ये वस्त्र कभी पहने 
कान न कभी सुने नाम गहने 
तितली न कभी सखी हो इसकी 
बस याद रहे ये है गरीब की जाई

गरीब के घर आज ख़ुशी आई 

देह की अग्नि से दूर ही रहे सदा 
श्रम अभाव लाचारी इसकी सम्पदा 
दुल्हन पालकी प्यार से न वास्ता 
खेले संग लिए घुटन और तन्हाई
गरीब के घर आज ख़ुशी आई 

रविवार, 10 अप्रैल 2011

शहर की छोरी

तुम ठहरी शहर की छोरी
मै खेड़े गाँव का बावला 
ये प्रेम क्यूँ कैसे हो गया 
मै मूढ़ फंसा अच्छा भला

तेरी सादगी मुझे है भाई 
छ्ल कपट की बू न पाई 
मै चाहूँ तुझे अपना पति
मुझे तू ही लगा सबसे भला

तेरी गोरी निखरी काया
यहाँ तगड़ी धूप का साया
तुझे दुखी दखने से पहले
ओ ऊपरवाले मुझे बुला

पिया जहाँ तू रहे मै रहूँ
तेरी सूखी में भी सुखी रहूँ
मेरा सोया भाग्य खुल जाये
जो लेलूं तेरी बुरी बला

अरी पगली जिद तू छोड़ दे
किसी शहरी से नाता जोड़ के
मुझ गरीब के पास न रहने को
नई चुनरी को नहीं एक धेला    

नही चुनरी तुझसे मांगू
ये शहरी रूप मै त्यागूँ
बस तुझ संग फेरे हो जाएँ
चाहे उसके बाद मर जाऊं

न ऐसे शब्द तू बोल
ले खड़ा मै बाहें खोल
आजा दोनों एक हो जाएँ
आई है मिलन की शुभ बेला

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

विरला

सीधी राह ढूंढे न मिली 
पथरीले पथ विरले चले 
तू एक अकेला चल चला 
मंजिल पाने बन विरला 
कष्टों के घाव न दिखें तेरे
जो तेरे हैं वो न दिखें तेरे 
काँटों को अब फूल समझ
फूल महके, उसे दूर समझ 
चेहरा पढ़ तेरा न पता चले 
थकन की अग्न, न तू गले  
पथिक तुझे संग ले जायेंगे
राह  मंजिल की भटकायेंगे 
जो मंजिल तेरे समक्ष खड़ी
भुला, तुझे ओझल करवायेंगे
तू एक अकेला बन विरला 
देख पीछे पीछे सब आयेंगे    

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

धरती के बोझ

हम धरती के बोझ हैं बाबा 
हम धरती के बोझ
भ्रष्टाचारी हैं हम पक्के 
दूजी न कोई सोच बाबा

चाहे जो तुम काम बोलो 
हम करें नोटों से तोलो 
अपने रिश्ते नाते हैं सब 
बस तुम जाओ तिजोरी खोलो 
मंत्री हो या कोई संतरी 
रखे हम सबकी जंत्री 
आदेश न्यायिक पास करालो
अपना है यही काम रोज बाबा

हम धरती के बोझ

नेता हो या अभिनेता हो 
घूस न चाहे कोई लेता हो 
सोफे पर या मेज के नीचे 
पैसे रखें दांतों में भींचे 
कैसे कब किसको पकड़ें 
अपने हाथ हैं सबसे तगड़े 
काम होगा विश्वास हमारा  
कलदार पूजें रोज हम बाबा 

हम धरती के बोझ 


गीत

मै गुनगुनाया जाता हूँ   
मै गुनगुनाया जाता हूँ  
धुन के धागे में पिरोकर 
धुन संग गाया जाता हूँ

सुबह पंछियों की चहक से    
सोंधी माटी की महक से  
बहते पानी से मचलते 
मीन जैसे खेल उछलते 
खेतों में लहलहाती सरसों 
कहीं खो गये अर्थ जो बरसों 
अब नही कहीं पाता हूँ 

मुझ में थी बेटी बिदाई 
रक्षा बंधन की कलाई 
प्रेमिका की नयन भराई
प्रेम के अर्थों की रुबाई 
ममता में वो डांटती माई 
खून पसीने की कमाई 
मुझमे ढूंढ़ नहीं पाता हूँ

देश भक्ति थी टपकती 
त्योहारों की ख़ुशी छलकती 
बालपन के खेल अनोखे 
एकजुट सब दूर थे धोखे
नदियाँ खेलें सागर सागर
गोरी के सिर छलके गागर
स्वप्नों में ही पाता हूँ

आज जो भी मुझमे आता
आकर कब वो गुम हो जाता
शब्द सरीखे पुष्प साथी  
अर्थों का इत्र लगाते थे 
कोई तो अब आगे आओ 
मेरे खोये शब्दों को लाओ 
अर्थों के अर्थ न पाता हूँ

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

वक्त

हमने खुदा से माँगी बीमारी 
सोचा वो आयेंगे हाल पूछने 
उन्होंने कब्रिस्तान की राह ली
हमारे लिये कब्र की तलाश में  


रविवार, 3 अप्रैल 2011

अजब गजब सी दुनिया सारी

अजब गजब सी दुनिया सारी
अजब गजब लगा रेला है 
जो चढ़ता वो पूजा जाता 
जो गिरता, पाता ढेला है 

दुनिया में जो रोंदे जाते 
वो कहते हमने झेला है 
रोंदने वाला जब मिलता 
कहते प्रभु का चेला है 

वस्त्रों में निर्वस्त्र रहकर 
उनका चलन अकेला है 
वो बढ़ चलें हम चल चलें 
बदरंगों ने रंग ये खेला है 

अपमान हमारे मान उन्हें 
काहे का चढ़ा अभिमान उन्हें 
हम न सहते, वो क्या कहते 
ये घर करता, तू अकेला है 

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

मेरी शादी

कल तक था मै एक कुंवारा 
गलियों फिरता था आवारा 
आज मुझ पर रोक लगा दी
क्योंकि आज है मेरी शादी 

शशि रंजना सब रोयेंगी
टीना मीना बाट जोहेंगी 
रीना सुनीता सभी गंवादी
क्योंकि आज है मेरी शादी

पीलिये का बुखार हो गया
हल्दी संग अब प्यार हो गया
खूबसूरती की परत चढ़ा दी 
क्योंकि आज है मेरी शादी

अपना कमरा अपना पलंग 
बंद दरवाजा पड़े अधनंग
कैसे छोड़े जिसके थे आदि   
क्योंकि आज है मेरी शादी

पुराने पत्र पुराने सब चित्र 
कैसे ताड़ेंगे वो हसीन मित्र 
अब बंधे खूंटे आज़ादी त्यागी
क्योंकि आज है मेरी शादी

नून तेल लकड़ी का भाव
मिर्च मसाला रोटी पुलाव 
मोल भाव के होंगे हम आदि 
क्योंकि आज है मेरी शादी

एक डर अब सदा खायेगा 
छुपा लो, पता लग जायेगा 
दिल की छमिया बुआ बनादी
क्योंकि आज है मेरी शादी

अब हम बच्चों के मामा होंगे
परायी देख ना आँख मलेंगे 
जिंदा होंगे मौत के ही आदि 
क्योंकि आज है मेरी शादी